मेरे क्लिनिक में एक नौजवान को लाया गया। नाम.अभिनवए उम्र 30 वर्ष। कष्ट दोनों घुटनों मेंए गलित कुष्ठए बदबूदार। बहुत इलाजए कोई लाभ नही। रोगी अत्यन्त परेशान एवं भयत्रस्त । भय लगता हैए समूचा शरीर रोग्रस्त हो जायेगा। अति भयत्रस्त था । Fear extravagance of के आधार पर opium-30 एक खुराक दियए,पन्द्रह दिन पर आया। वह रोगमुक्त रोग प्रसन्न था ।
केस नं0. 2
एक कुमारी लड़की क्लिनिक में लायी गयी। नाम रागिनीए उम्र 30 सालए बीण्एण्ए बहुत परेशान। दस से उसे मुत्र दूध की तरह हो रहा था। पटना.भागलपुर इलाज में तीस हजार खर्च कर चुकी थी। लाचार थीए परेशान थी। बोली सरए मुझे होमियोपैथी को जानकारी हैं मुझे आशा है इसी से मुझे लाभ होगा। मैं छोटे.छोटे रोग में होमियोपैथी दवा करा चुकी हूँ। इससे बहुत लाभ होता है। Objective resonable & hopeful के आधार पर nm-30 की एक खुराक दिया pl के साथ। तेईस दिन पर आयी। बोलीए वह रोगमुक्त और बिल्कुल ठीक है।
Monday, January 18, 2010
Sunday, January 3, 2010
ग्रेट दिस्कोवेरी-होमिओपेथी
इस सदी का महानतम अविष्कार जिसे इन्सान ने किया- उसे ‘‘इलेक्ट्रीसिटी’’ कहते है, कुछ लोग इस आपति उठाते है और तर्क देते हैं कि यह दुनिया चलती रहती है और आवश्यकता अनुसार अविष्कार किये जाते रहे है क्योंकि ‘‘चक्के’’ के अविष्कार के बाद ‘‘हवाई जहाज’’ एवं ‘‘राॅकेट’’ का भी अविष्कार हुआ जो कि अन्य महानतम अविष्कारों के श्रेणी मे उग्रणीय है । मगर कुछ लोग ऐसे भी है, जो यह कहते हे कि ‘‘न्यूक्लियर एनर्जी का उत्पादन एवं इसका प्रयोग’’ महान अविष्कार है । अब इसका निर्णय कैसे होगा कि कौन सबसे महान अविष्कार है?
आईये, इसको ‘‘मियाज्म’’ के हिसाब से देखते है-
ज्यादातर अविष्कार मनुष्य के जीवन को आराम, आरामदेय और सुख-सुविधाओं के मददेनजर किये गये है, ये sycotic की उत्पति के कारण हुए है । कुछ ऐसे अविष्कार जो प्रकृति के खिलाफ काम करते है और ‘‘मनुष्य जीवन को नाश’’ करने वाले है, चाहे वह स्वयं का हो या दुसरो का, यही नही कोई ऐसा काम, जो किसी भी जीवन के लिए, जो कि पृथ्वी पर है, उसका ‘अनिष्ट’ करने वाला हो या अनिष्ट में सहयोग पहुँचाता है। ये syphilis के उत्पति के कारण होता है और खास तौर से syphilitic व्यक्तियों द्वारा ही अविष्कारित होते हैं, अगर इन व्यक्तियों में syphilitic Miasm मौजूद ना होता तो उनके द्वारा अविष्कार ही नही हो सकता था। और ऐसे अविष्कार जो मनुष्य के ‘‘स्वास्थ्य’’ मंे सुधार करते हो, या सुधार करने में सहायक हो psora की उत्पति के सूचक है और सही मायने में, यही अविष्कार, ‘‘महान अविष्कार’’ कहलाये जाने चाहिए । हमें तो ईश्वरीय स्वरूप में भी ‘‘मियाज्म’’ दिखता है ।
हिन्दू ‘‘धर्मग्रन्थों’’ में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वर्णन मिलता है । आये दिन, इन देवी देवताओं के पूजन समारोह हुआ करता है । हिन्दू धर्म ग्रन्थ के अनुसार श्री ब्रह्मा ‘‘पैदा करने वाले’’ है, श्री विष्णु, ‘‘पालन’’ करने वाले है और महेश यानि कि ‘‘शंकर भगवान’’ संहार करने वाले है । ‘मियाज्मी तौर पर ब्रह्मा ‘जनक’’ यानि कि सोरा, विष्णु ‘‘पालक’’ यानि की साइकोसिस और महेश ‘संहारक’’’ यानि कि सिफलिस ।
ठीक इसी तरह जब हम गहराई से समझते है तो पता चलता है, ‘‘मियाज्म’’ हमारे जीवन के साथ चलते रहता है ।
‘‘श्री वैष्णों देवी का भव्य, मंदिर जम्मू काश्मीर स्टेंट में है, जहाँ हर साल लाखों भक्त जाते है। जहाँ माता वैष्णो, तीन पिड़ियों के स्वरूप में विराजमान है । इन तीनों पिड़ियों में एक माँ सरस्वती, दुसरी माँ लक्ष्मी एवं तीसरी माँ काली की है और इन तीनों शक्तियों के मिले-जुले स्वरूप को माता वैष्णों के रूप में जानी जाती है, मगर इन्हें भी ‘‘मियाज्म’’ के अनुसार देखते है, तो माँ सरस्वती ‘‘सोरा’’ है माँ लक्ष्मी-सायकोसिस और माँ काली- सिफिलस
थोड़ा और आसान शब्दों में कहे तो माँ सरस्वती यानि की ‘‘विद्या’’ यानि की आवश्यकता ये ‘‘सोरा’’ है । माँ लक्ष्मी यानि कि ‘वैभव’ यानि कि ‘विश्वास’’ यानि कि सुख समृद्धि ये साइकोसिस के सूचक है और माँ काली यानि कि ‘संहारक’ यानि कि ‘नाशकर्ता’ सिफिलिस की सूचक है ।
आपको ये सभी बातें एक bouncer की तरह लग रही होगी, जो कि आपके दिमाग में फूट रही होगी । जी, हाँ यह सभी ज्ञान-एक वम्ब की तरह ही है अगर आप इसको अच्छी तरह समझ लें तो यह निश्चित है कि अगर ये समझ मे आ गया तो दुनिया छोटी दिखने लगेगी एवं चिकित्सा के क्षेत्र में जितने अविष्कार अब तक हुए, उन सबसे यह महान ‘अविष्कार’ होगी, आपके लिए ।
यह डा0 हैनिमैन का ही ‘‘सोच’’ था, एक आईडिया था, जिसने होमियोपैथी को इतनी उँचाई पर ले गया और इनके द्वारा ही डा0 बोनिनघसन, डा0 हेंरिंग, डा0 ऐलन, डा0 केन्ट और डा0 वोगर के पास गया । मैं निसंकोच कह सकता हूँ कि पुरी दुनिया में लाखो-करोड़ों होमियोपैथिक टीचर होगें, लेकिन बहुत कम ही होंगे, जिन्होंने उस तरह होमियोपैथी को समझा होगा जिस तरह डा0 हैनिमैन चाहते थे कि समझा जाये ।
यहाँ पर बहुत महान होमियो चिकित्सक है और कुछ तो बहुत अच्छे भेटेरिया मेडिका के शिक्षक भी है, यहाँ तक की होमियोपैथिक फिलास्फी एवं रेपर्टरी, उन्हें ‘‘जुबानी’’ तक याद है मगर डा0 हैनिमैन की सोच तक नही पहुँच पा रहे हैं क्योंकि ऐसी सोच ‘‘आम आदमी’’ के बस का ही नही है, इसके लिए हमें असाधारण परिश्रम करना ही पड़ेगा । इसके लिए हमें अपनी असफताओं से ‘सीखना’ चाहिए कि हम अपने केस में अगर फेल हुए तो क्यों हुए?
हमारी दवा चुनने में कहाँ कमी रह गयी? ‘‘अनुभव’’ द्वारा ही हम इसे जान पाते हैं क्योंकि ‘अनुभव’ ही हमारा सच्चा शिक्षक है जो कि कभी भी ‘गुमराह’ नही होने देता है और मनन करने पर बता देता है कि आप यहाँ पर गलत थे । चाहे हम किसी ‘‘मेथड’ द्वारा रोगियों के लिए दवा का चुनाव करें । परन्तु चाहिए सिर्फ ‘‘एक सिमिलियम रिमेडी’’ ही । पिछले दिनों ‘‘माइंड टेक ऐसोसियसन’ के क्लास में कुछ इसी तरह के अनुतरित प्रश्न डाक्टरों द्वारा पुछे गये थे । कलकता से आये, डा0 बी0 एन0 चक्रवर्ती ने बताया कि ‘होमियोपैथिक माइंड’ पढ़ कर, इनमें कई तरह के असाध्य रोगों में चिकित्सा करने का साहस पैदा हुआ, परन्तु जल्द ही वह ‘‘साहस’’ निराशा में बदल गया और उन्हें आज तक समझ नही आया कि ऐसा कैसे हों गया। उन्होंने बताया कि एक Acute Renal Failure का केस था, जिसमें उन्होंने well Similimum का चुनाव किया एवं Lycopodium का इस्तेमाल रोगी पर किया । अगले सप्ताह रोगी ने रिपोर्ट किया कि बहुत अच्छा है, सभी तकलीफों में ‘आराम’ है और मुझे होमियोपैथी एवं आप पर भरोसा हो गया है, कि अब मैं बच जाउँगा क्योंकि मेरा Serium- Creatinne & Blood Urea घट रहा है। नींद भी अच्छी आ रही है भुख लग रही है और मेरे खाने का रूचि बढ़ गयी है और कल से मैं अपने काम पर भी जा रहा हूँ।
मगर रोगी की यह खुशी ज्यादा दिन तक नहीं रह सकी क्योंकि फिर अचानक धीरे-धीरे रोगी का हालत में गिरावट शुरू हो गयी, जो वजन ‘दवा’ देने के बाद बढ़ रहा था वो घटने लगा, ब्लड प्रेसर भी हाई होने लग गया, कुछ-कुछ सूजन भी बढ़ने लगा। पहले जो Serium- Creatinne & Blood Urea घट गया था वो बढ़ने लगा Bun का लेवल भी बढ़ गया तथा साँस लेने में कठिनाई होने लगा । बार-बार Lycopodium देने के बाद भी सुधार नही हुआ । पोटेन्सी बदल-बदल कर दिया गया मगर जो फायदा पहली खुराक से हुआ था, वो फिर नहीं दिखाई पड़ा । दवा बदल कर भी देखा, मगर कोई फायदा नजर नहीं आया, लाख कोशिश के बाद भी, अन्ततः रोगी मर गया ।
ऐसा क्यों हुआ?
लखनउ से आये, डा0 समीर ने भी इसी तरह के एक रोगी के बारे में बताया कि यह रोगी I.H.D (इसिच्मीक हार्ट डीसिस) का था और काफी चिकित्सा के बाद भी इसे असाध्य मान कर ऐलोपैथो द्वारा मरने के लिए छोड़ दिया गया था, मेरे पास पहुँचा । मैंने काफी मेहनत करके उसके लिए Ars Alb का चुनाव किया एवं दवा दिया, अगले दिन ही सूचना मिली, काफी सुधार है । पाँच महिने तक उतरोतर सुधार होता रहा । रोगिणी जब भी दवा लेने आती थी तो कहती थी, डा0 साहब जब से आपके ईलाज में हूँ बहुत अच्छा महसूस कर रही हूँ। मगर अचानक एक दिन फोन आया कि डा0 साहब जल्दी आईये, रोगिणी की हालत बहुत खराब है । घर जा कर देखा, तो रोगिणी काफी सीरियस नजर आयी, बेहोशी के साथ सांस काफी दिक्कत से ले पा रही थी । आक्सीजन लगाया गया तथा फिर से Ars Alb का प्रयोग किया एवं शाम को खबर तो आयी, मगर पहले के खबर से अलग थी कि रोगिणी को अब किसी दवा की जरूरत ही नही है। शाम होने के पहले ही उसका इन्तकाल हो गया ।
ऐसा क्यों हुआ?
क्या होमियो चिकित्सा, टोना-टोटका की तरह है? या Similia Similibus का सूत्र एक ‘मजाक’ है? इसी तरह के प्रश्न उठते रहे।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या होमियोपेथिक दवाओं की भी कोई ‘सीमा’ है, जहाँ से आगे जा कर यह काम नही करता है?
क्या यह सिर्फ नयी बीमारियों में ही फायदेमंद है?
क्या यह गम्भीर रोगों में क्षणिक फायदा ही पहँचा सकता है?
अगर इन सारे प्रश्नों के जवाब हाँ है तो फिर डा0 हैनिमैन को होमियोपैथी के अविष्कार की जरूरत क्या थी?
क्यों आर्गेमन में पुरानी बीमारियों के चिकित्सा के ही विषय में लिखा गया है?
क्यों हम लोग अक्सर सुनते है कि ‘कैन्सर’ का रोगी होमियो ईलाज से ठीक हो गया ।
क्यों होमियोपैथी द्वारा चमत्कार होते है?
क्यों, ये चमत्कार कुछ रोगों में हो जाते है, सभी में नहीं?
क्या, ये चमत्कार गलती से हो जाते है?
सारे प्रश्नों का ‘‘सार तत्व’’ यह है कि क्यों ‘‘होमियोपैथ्स’’ फेल करते है?
वो कौन से कारण है, जिनके कारण ‘‘होमियोपैथ्स’’ फेल हो जाते है,
हम नित नई-नई दवाआंे के खोज में लगे है, मगर यह नही समझते है कि ‘सल्फर’ जैसी प्योर सोरिक रिमेडी से कैन्सर जैसी सिफिलिटिक रोग कैसे ठीक किया जाता है?
कलकता के डा0 बी0 एन0 चक्रवर्ती जी के किडनी केस में क्या हुआ ।
आइये विवेचना करे-
बीमारी की उत्पति के दौरान प्राथमिक लक्षण उत्पन्न होते है, जिन्हें ऐलोपैथिक दवाओं द्वारा खत्म कर दिया जाता है । ब्लड-प्रेशर एक बड़ा करण हो जाता है, ‘‘किडनी को फेल’’ करने का। अगर ब्लड - प्रेशर हो गया है, तो उसकी ‘‘कारण-चिकित्सा’’ होनी चाहिए, ना कि रूटिन तौर एक दवा, चाहे वो ऐलोपैथिक हो या होमियोपैथिक लगातार खाने रहने पर ‘‘किडनी फेल’ हो जायेगा, इसमें संदेश नही है । इस प्रक्रिया को शरीर क्रिया विज्ञान के आलोक में समझते है- जब ‘‘रेनल अर्टरी’ में छंततवू वाली स्थिति बन जाती है तब खून की सप्लाई किडनी में कम होने लगती है । जब कि किडनी को प्रयाप्त आपूर्ति चाहिए, पर उपरोक्त कारण के वजह से यह सम्भव नही हो पाता है, जिसके कारण शरीर दुसरी तरफ इसकी आपूर्ति की व्यवस्था में लग जाता है और हार्ट पर प्र्रेसर बनाने लगता है कि तुम, अत्याधिक दबाव के साथ खून का संचालन करो ताकि अधिक जोर से खून, झटका देते हुए बढ़े एवं अर्टरी में जो छंततवूमक स्थिति सुधर जाये और किडनी को प्रयाप्त खून मिलने लगे ताकि शरीर पूर्ण रूप से अपना काम करें ।
मगर यहाँ पर कारण चिकित्सा ना करके ब्लड प्रेसर कम करने की दवा चलानी शुरू हो गयी । एण्टी हाइपरटेन्सिव ड्रग ने, चाहे वो होमियोपैथिक हो या ऐलोपैथिक ब्लड प्रेसर को तो कम किया, जिसे आम भाषा में कहा जाता है कि इस दवा से मेरा ब्लड प्रसर कन्ट्रोल हो गया पर किडनी को तो ब्लड की आपूर्ति पुरी मात्रा में तो नही हो रही और धीरे-धीरे और कम सप्लाई होती जायेगी, जिसके कारण किडनी का बचना तो असम्भव ही है यानि कि किडनी फेल हो गयी । क्योंकि किडनी के परेन्चाईमा धीरे-धीरे नष्ट हो रही थी, और यह ब्लड-पे्रसर के कारण नही हुआ बल्कि किडनी में खून की आपूर्ति कम मात्रा में होने के कारण हुआ और यहाँ पर ऐलोपैथिक डाक्टर एक ही सलाह देते है कि अब बिना ‘‘डायलिसिस’’ किये कोई उपाय नही है । डा0 बी0 एन चक्रवर्ती की Lycopodium ने भी ‘‘डायलिसिस’’ का ही काम किया, जिसके कारण रोगी में उतरोतर सुधार होता गया, स्थिति रोज-व-रोज अच्छी दिखाई पड़ने लगी, मगर ‘‘रोग की कारण-चिकित्सा’’ यहाँ भी ना की गयी और रोग धीरे-धीरे sycotic से प्रोग्रेस कर syphilitic में चला गया तब रोगी की हालत खराब होने लगी, अगर इस समय भी रोगी की ‘‘कारण सहित सम्पूर्ण चिकित्सा’’ की जाती तो शायद रोगी आज जीवित होता परन्तु Perfect similimum Remedy रिमेडी तक नही पहुँच पाने के कारण, रोगी मर गया । डा0 हैनिमैन ने अपनी पुस्तक chronic Diseases और आर्गेनन के सूत्र नं0- 205 में लिखा है कि अगर होमियोपैथिक चिकित्सक किसी रोगी में प्राईमरी लक्षणों को नही पाता है, यदि पहले से ही नष्ट हो गये हो तो उसको अब deal with secandory ones की तरह सोचना चाहिए और पता लगाना चाहिए कि इन लक्षणों के पहले कौन से लक्षण उत्पन्न हुए थे यानि कि अगर यह रोगी sycotic state में आया है, तो psora क्या था ? इसका साफ-साफ मतलब है कि chronic diseases or Terminal Cases or Grave Pathological Diseases की चिकित्सा करने के पहले आपको सम्पूर्ण रोगी इतिहास को इस्तेमाल करना पड़ेगा। शायद इसी लिए डा0 हैनिमैन ने लिखा है कि
Cannot be treated with out the Underlying" "Miasm" being taken in to consideration."
जब भी हमलोग होमियोपैथिक दवा का चुनाव करते है, सिर्फ यह नही सोचना है कि लक्षणों से सादृश्य दवा लेना है या क्पेमंेम से सादृश्य दवा चुनना है बल्कि रोगी के इतिहास से भी सादृश्य दवा चुनना है ।
आईये, इसको ‘‘मियाज्म’’ के हिसाब से देखते है-
ज्यादातर अविष्कार मनुष्य के जीवन को आराम, आरामदेय और सुख-सुविधाओं के मददेनजर किये गये है, ये sycotic की उत्पति के कारण हुए है । कुछ ऐसे अविष्कार जो प्रकृति के खिलाफ काम करते है और ‘‘मनुष्य जीवन को नाश’’ करने वाले है, चाहे वह स्वयं का हो या दुसरो का, यही नही कोई ऐसा काम, जो किसी भी जीवन के लिए, जो कि पृथ्वी पर है, उसका ‘अनिष्ट’ करने वाला हो या अनिष्ट में सहयोग पहुँचाता है। ये syphilis के उत्पति के कारण होता है और खास तौर से syphilitic व्यक्तियों द्वारा ही अविष्कारित होते हैं, अगर इन व्यक्तियों में syphilitic Miasm मौजूद ना होता तो उनके द्वारा अविष्कार ही नही हो सकता था। और ऐसे अविष्कार जो मनुष्य के ‘‘स्वास्थ्य’’ मंे सुधार करते हो, या सुधार करने में सहायक हो psora की उत्पति के सूचक है और सही मायने में, यही अविष्कार, ‘‘महान अविष्कार’’ कहलाये जाने चाहिए । हमें तो ईश्वरीय स्वरूप में भी ‘‘मियाज्म’’ दिखता है ।
हिन्दू ‘‘धर्मग्रन्थों’’ में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वर्णन मिलता है । आये दिन, इन देवी देवताओं के पूजन समारोह हुआ करता है । हिन्दू धर्म ग्रन्थ के अनुसार श्री ब्रह्मा ‘‘पैदा करने वाले’’ है, श्री विष्णु, ‘‘पालन’’ करने वाले है और महेश यानि कि ‘‘शंकर भगवान’’ संहार करने वाले है । ‘मियाज्मी तौर पर ब्रह्मा ‘जनक’’ यानि कि सोरा, विष्णु ‘‘पालक’’ यानि की साइकोसिस और महेश ‘संहारक’’’ यानि कि सिफलिस ।
ठीक इसी तरह जब हम गहराई से समझते है तो पता चलता है, ‘‘मियाज्म’’ हमारे जीवन के साथ चलते रहता है ।
‘‘श्री वैष्णों देवी का भव्य, मंदिर जम्मू काश्मीर स्टेंट में है, जहाँ हर साल लाखों भक्त जाते है। जहाँ माता वैष्णो, तीन पिड़ियों के स्वरूप में विराजमान है । इन तीनों पिड़ियों में एक माँ सरस्वती, दुसरी माँ लक्ष्मी एवं तीसरी माँ काली की है और इन तीनों शक्तियों के मिले-जुले स्वरूप को माता वैष्णों के रूप में जानी जाती है, मगर इन्हें भी ‘‘मियाज्म’’ के अनुसार देखते है, तो माँ सरस्वती ‘‘सोरा’’ है माँ लक्ष्मी-सायकोसिस और माँ काली- सिफिलस
थोड़ा और आसान शब्दों में कहे तो माँ सरस्वती यानि की ‘‘विद्या’’ यानि की आवश्यकता ये ‘‘सोरा’’ है । माँ लक्ष्मी यानि कि ‘वैभव’ यानि कि ‘विश्वास’’ यानि कि सुख समृद्धि ये साइकोसिस के सूचक है और माँ काली यानि कि ‘संहारक’ यानि कि ‘नाशकर्ता’ सिफिलिस की सूचक है ।
आपको ये सभी बातें एक bouncer की तरह लग रही होगी, जो कि आपके दिमाग में फूट रही होगी । जी, हाँ यह सभी ज्ञान-एक वम्ब की तरह ही है अगर आप इसको अच्छी तरह समझ लें तो यह निश्चित है कि अगर ये समझ मे आ गया तो दुनिया छोटी दिखने लगेगी एवं चिकित्सा के क्षेत्र में जितने अविष्कार अब तक हुए, उन सबसे यह महान ‘अविष्कार’ होगी, आपके लिए ।
यह डा0 हैनिमैन का ही ‘‘सोच’’ था, एक आईडिया था, जिसने होमियोपैथी को इतनी उँचाई पर ले गया और इनके द्वारा ही डा0 बोनिनघसन, डा0 हेंरिंग, डा0 ऐलन, डा0 केन्ट और डा0 वोगर के पास गया । मैं निसंकोच कह सकता हूँ कि पुरी दुनिया में लाखो-करोड़ों होमियोपैथिक टीचर होगें, लेकिन बहुत कम ही होंगे, जिन्होंने उस तरह होमियोपैथी को समझा होगा जिस तरह डा0 हैनिमैन चाहते थे कि समझा जाये ।
यहाँ पर बहुत महान होमियो चिकित्सक है और कुछ तो बहुत अच्छे भेटेरिया मेडिका के शिक्षक भी है, यहाँ तक की होमियोपैथिक फिलास्फी एवं रेपर्टरी, उन्हें ‘‘जुबानी’’ तक याद है मगर डा0 हैनिमैन की सोच तक नही पहुँच पा रहे हैं क्योंकि ऐसी सोच ‘‘आम आदमी’’ के बस का ही नही है, इसके लिए हमें असाधारण परिश्रम करना ही पड़ेगा । इसके लिए हमें अपनी असफताओं से ‘सीखना’ चाहिए कि हम अपने केस में अगर फेल हुए तो क्यों हुए?
हमारी दवा चुनने में कहाँ कमी रह गयी? ‘‘अनुभव’’ द्वारा ही हम इसे जान पाते हैं क्योंकि ‘अनुभव’ ही हमारा सच्चा शिक्षक है जो कि कभी भी ‘गुमराह’ नही होने देता है और मनन करने पर बता देता है कि आप यहाँ पर गलत थे । चाहे हम किसी ‘‘मेथड’ द्वारा रोगियों के लिए दवा का चुनाव करें । परन्तु चाहिए सिर्फ ‘‘एक सिमिलियम रिमेडी’’ ही । पिछले दिनों ‘‘माइंड टेक ऐसोसियसन’ के क्लास में कुछ इसी तरह के अनुतरित प्रश्न डाक्टरों द्वारा पुछे गये थे । कलकता से आये, डा0 बी0 एन0 चक्रवर्ती ने बताया कि ‘होमियोपैथिक माइंड’ पढ़ कर, इनमें कई तरह के असाध्य रोगों में चिकित्सा करने का साहस पैदा हुआ, परन्तु जल्द ही वह ‘‘साहस’’ निराशा में बदल गया और उन्हें आज तक समझ नही आया कि ऐसा कैसे हों गया। उन्होंने बताया कि एक Acute Renal Failure का केस था, जिसमें उन्होंने well Similimum का चुनाव किया एवं Lycopodium का इस्तेमाल रोगी पर किया । अगले सप्ताह रोगी ने रिपोर्ट किया कि बहुत अच्छा है, सभी तकलीफों में ‘आराम’ है और मुझे होमियोपैथी एवं आप पर भरोसा हो गया है, कि अब मैं बच जाउँगा क्योंकि मेरा Serium- Creatinne & Blood Urea घट रहा है। नींद भी अच्छी आ रही है भुख लग रही है और मेरे खाने का रूचि बढ़ गयी है और कल से मैं अपने काम पर भी जा रहा हूँ।
मगर रोगी की यह खुशी ज्यादा दिन तक नहीं रह सकी क्योंकि फिर अचानक धीरे-धीरे रोगी का हालत में गिरावट शुरू हो गयी, जो वजन ‘दवा’ देने के बाद बढ़ रहा था वो घटने लगा, ब्लड प्रेसर भी हाई होने लग गया, कुछ-कुछ सूजन भी बढ़ने लगा। पहले जो Serium- Creatinne & Blood Urea घट गया था वो बढ़ने लगा Bun का लेवल भी बढ़ गया तथा साँस लेने में कठिनाई होने लगा । बार-बार Lycopodium देने के बाद भी सुधार नही हुआ । पोटेन्सी बदल-बदल कर दिया गया मगर जो फायदा पहली खुराक से हुआ था, वो फिर नहीं दिखाई पड़ा । दवा बदल कर भी देखा, मगर कोई फायदा नजर नहीं आया, लाख कोशिश के बाद भी, अन्ततः रोगी मर गया ।
ऐसा क्यों हुआ?
लखनउ से आये, डा0 समीर ने भी इसी तरह के एक रोगी के बारे में बताया कि यह रोगी I.H.D (इसिच्मीक हार्ट डीसिस) का था और काफी चिकित्सा के बाद भी इसे असाध्य मान कर ऐलोपैथो द्वारा मरने के लिए छोड़ दिया गया था, मेरे पास पहुँचा । मैंने काफी मेहनत करके उसके लिए Ars Alb का चुनाव किया एवं दवा दिया, अगले दिन ही सूचना मिली, काफी सुधार है । पाँच महिने तक उतरोतर सुधार होता रहा । रोगिणी जब भी दवा लेने आती थी तो कहती थी, डा0 साहब जब से आपके ईलाज में हूँ बहुत अच्छा महसूस कर रही हूँ। मगर अचानक एक दिन फोन आया कि डा0 साहब जल्दी आईये, रोगिणी की हालत बहुत खराब है । घर जा कर देखा, तो रोगिणी काफी सीरियस नजर आयी, बेहोशी के साथ सांस काफी दिक्कत से ले पा रही थी । आक्सीजन लगाया गया तथा फिर से Ars Alb का प्रयोग किया एवं शाम को खबर तो आयी, मगर पहले के खबर से अलग थी कि रोगिणी को अब किसी दवा की जरूरत ही नही है। शाम होने के पहले ही उसका इन्तकाल हो गया ।
ऐसा क्यों हुआ?
क्या होमियो चिकित्सा, टोना-टोटका की तरह है? या Similia Similibus का सूत्र एक ‘मजाक’ है? इसी तरह के प्रश्न उठते रहे।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या होमियोपेथिक दवाओं की भी कोई ‘सीमा’ है, जहाँ से आगे जा कर यह काम नही करता है?
क्या यह सिर्फ नयी बीमारियों में ही फायदेमंद है?
क्या यह गम्भीर रोगों में क्षणिक फायदा ही पहँचा सकता है?
अगर इन सारे प्रश्नों के जवाब हाँ है तो फिर डा0 हैनिमैन को होमियोपैथी के अविष्कार की जरूरत क्या थी?
क्यों आर्गेमन में पुरानी बीमारियों के चिकित्सा के ही विषय में लिखा गया है?
क्यों हम लोग अक्सर सुनते है कि ‘कैन्सर’ का रोगी होमियो ईलाज से ठीक हो गया ।
क्यों होमियोपैथी द्वारा चमत्कार होते है?
क्यों, ये चमत्कार कुछ रोगों में हो जाते है, सभी में नहीं?
क्या, ये चमत्कार गलती से हो जाते है?
सारे प्रश्नों का ‘‘सार तत्व’’ यह है कि क्यों ‘‘होमियोपैथ्स’’ फेल करते है?
वो कौन से कारण है, जिनके कारण ‘‘होमियोपैथ्स’’ फेल हो जाते है,
हम नित नई-नई दवाआंे के खोज में लगे है, मगर यह नही समझते है कि ‘सल्फर’ जैसी प्योर सोरिक रिमेडी से कैन्सर जैसी सिफिलिटिक रोग कैसे ठीक किया जाता है?
कलकता के डा0 बी0 एन0 चक्रवर्ती जी के किडनी केस में क्या हुआ ।
आइये विवेचना करे-
बीमारी की उत्पति के दौरान प्राथमिक लक्षण उत्पन्न होते है, जिन्हें ऐलोपैथिक दवाओं द्वारा खत्म कर दिया जाता है । ब्लड-प्रेशर एक बड़ा करण हो जाता है, ‘‘किडनी को फेल’’ करने का। अगर ब्लड - प्रेशर हो गया है, तो उसकी ‘‘कारण-चिकित्सा’’ होनी चाहिए, ना कि रूटिन तौर एक दवा, चाहे वो ऐलोपैथिक हो या होमियोपैथिक लगातार खाने रहने पर ‘‘किडनी फेल’ हो जायेगा, इसमें संदेश नही है । इस प्रक्रिया को शरीर क्रिया विज्ञान के आलोक में समझते है- जब ‘‘रेनल अर्टरी’ में छंततवू वाली स्थिति बन जाती है तब खून की सप्लाई किडनी में कम होने लगती है । जब कि किडनी को प्रयाप्त आपूर्ति चाहिए, पर उपरोक्त कारण के वजह से यह सम्भव नही हो पाता है, जिसके कारण शरीर दुसरी तरफ इसकी आपूर्ति की व्यवस्था में लग जाता है और हार्ट पर प्र्रेसर बनाने लगता है कि तुम, अत्याधिक दबाव के साथ खून का संचालन करो ताकि अधिक जोर से खून, झटका देते हुए बढ़े एवं अर्टरी में जो छंततवूमक स्थिति सुधर जाये और किडनी को प्रयाप्त खून मिलने लगे ताकि शरीर पूर्ण रूप से अपना काम करें ।
मगर यहाँ पर कारण चिकित्सा ना करके ब्लड प्रेसर कम करने की दवा चलानी शुरू हो गयी । एण्टी हाइपरटेन्सिव ड्रग ने, चाहे वो होमियोपैथिक हो या ऐलोपैथिक ब्लड प्रेसर को तो कम किया, जिसे आम भाषा में कहा जाता है कि इस दवा से मेरा ब्लड प्रसर कन्ट्रोल हो गया पर किडनी को तो ब्लड की आपूर्ति पुरी मात्रा में तो नही हो रही और धीरे-धीरे और कम सप्लाई होती जायेगी, जिसके कारण किडनी का बचना तो असम्भव ही है यानि कि किडनी फेल हो गयी । क्योंकि किडनी के परेन्चाईमा धीरे-धीरे नष्ट हो रही थी, और यह ब्लड-पे्रसर के कारण नही हुआ बल्कि किडनी में खून की आपूर्ति कम मात्रा में होने के कारण हुआ और यहाँ पर ऐलोपैथिक डाक्टर एक ही सलाह देते है कि अब बिना ‘‘डायलिसिस’’ किये कोई उपाय नही है । डा0 बी0 एन चक्रवर्ती की Lycopodium ने भी ‘‘डायलिसिस’’ का ही काम किया, जिसके कारण रोगी में उतरोतर सुधार होता गया, स्थिति रोज-व-रोज अच्छी दिखाई पड़ने लगी, मगर ‘‘रोग की कारण-चिकित्सा’’ यहाँ भी ना की गयी और रोग धीरे-धीरे sycotic से प्रोग्रेस कर syphilitic में चला गया तब रोगी की हालत खराब होने लगी, अगर इस समय भी रोगी की ‘‘कारण सहित सम्पूर्ण चिकित्सा’’ की जाती तो शायद रोगी आज जीवित होता परन्तु Perfect similimum Remedy रिमेडी तक नही पहुँच पाने के कारण, रोगी मर गया । डा0 हैनिमैन ने अपनी पुस्तक chronic Diseases और आर्गेनन के सूत्र नं0- 205 में लिखा है कि अगर होमियोपैथिक चिकित्सक किसी रोगी में प्राईमरी लक्षणों को नही पाता है, यदि पहले से ही नष्ट हो गये हो तो उसको अब deal with secandory ones की तरह सोचना चाहिए और पता लगाना चाहिए कि इन लक्षणों के पहले कौन से लक्षण उत्पन्न हुए थे यानि कि अगर यह रोगी sycotic state में आया है, तो psora क्या था ? इसका साफ-साफ मतलब है कि chronic diseases or Terminal Cases or Grave Pathological Diseases की चिकित्सा करने के पहले आपको सम्पूर्ण रोगी इतिहास को इस्तेमाल करना पड़ेगा। शायद इसी लिए डा0 हैनिमैन ने लिखा है कि
Cannot be treated with out the Underlying" "Miasm" being taken in to consideration."
जब भी हमलोग होमियोपैथिक दवा का चुनाव करते है, सिर्फ यह नही सोचना है कि लक्षणों से सादृश्य दवा लेना है या क्पेमंेम से सादृश्य दवा चुनना है बल्कि रोगी के इतिहास से भी सादृश्य दवा चुनना है ।
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